Sunday 25 September 2016

सुभाषितम् - अहो बत महत्कष्टं


अहो बत महत्कष्टं विपरीतमिदं जगत्।
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति ॥

अन्वयः-
     --अहो, बत, महत् कष्टम् । इदं जगत् विपरीतम् । येन साधुः अपत्रपते, तेन असाधुः तुष्यति ॥

भावानुवादः-
      --अहो, महत्क्लेशकरमेतत्! विश्वमिदं विपर्यस्तं वर्तते! येन कर्मणा सज्जनो लज्जते, तेनैव कर्मणा दुर्जनः प्रसन्नतां प्राप्नोति।

हिन्दी-अनुवादः-
      --यह कितने बड़े दुःख की बात है! और ये जगत भी कितना विपरीत है! जिस कार्य को करने में सज्जन लज्जित होता है, उसी कार्य को करने से दुर्जन खुश होता है।

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