Thursday 5 December 2019

विदग्धा वाक् 103 - निर्गत्य न विशेद्

निर्गत्य न विशेद् भूयो महतां दन्तिदन्तवत् ।
कूर्मग्रीवेव नीचानां वच आयाति याति च ॥

--कवितामृतकूपम् २२
 
निर्गत्य न विशेद् भूयः महतां दन्ति-दन्तवत् । कूर्मग्रीवा इव नीचानां वचः आयाति याति च ॥
 
महतां (वचः) दन्तिदन्तवत् निर्गत्य भूयः न विशेद् । नीचानां वचः कूर्मग्रीवा इव आयाति याति च ॥
 
महापुरुषों के वचन हाथी के दांत के समान, (एक बार जो) बाहर आजाए, पुनः अनदर नहीं जाते। नीचों के वचन कछुए के गले के समान (अन्दर, बाहर) आते जाते रहते हैं। 
 
మహాత్ముల మాట ఏనుగు దంతం వలె (ఒకసారి) బయటకు వచ్చాక మళ్ళీ లోపలకు పోదు. నీచుల మాట తాబేలు మెడ వలె (లోపలకు బయటకు) వచ్చి పోతుంటుంది.
 
The word of the noble minds comes out like an elephant’s tusk, and it never goes back. Whereas the word of the wicked is like the neck of a tortoise, that keeps coming out and is drawn in. 

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